गणित में आव्यूह एक अदिश राशियों से निर्मित आयताकार रचना है। यह आयताकार रचना लघु कोष्ठक "()", दोहरे दण्ड "|| ||" अथवा दीर्घ कोष्ठक "" के अन्दर बंद होती है। इसमें संख्याओं का एक विशेष प्रकार का विन्यास किया जाता है, अत: इसे आव्यूह, या मैट्रिक्स, की संज्ञा दी गई है। मैट्रिक्स के अवयव संख्याएँ होती हैं किन्तु ये ऐसी कोई भी अमूर्त वस्तु हो सकती है जिनका गुणा किया जा सके एवं जिन्हें जोड़ा जा सके।
सर्वप्रथम सिल्वेस्टर (1850 ई.) ने आव्यूह की यह परिभाषा दी थी कि संख्याओं के किसी आयताकार या वर्गाकार सरणी को, जिसमें से सारणिक (determinants) बन सकें, आव्यूह कहते हैं। आधुनिक समय में आव्यूह को एक अतिसंमिश्र (hypercomplex) संख्या के रूप में मानते हैं। इस दृष्टिकोण के प्रवर्तक हैं मिल्टन (1853 ई.) और केली (1858 ई.)।
नाम mohit lodhi
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! आकार | उदाहरण | विवरण |
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पंक्ति आव्यूह | 1 × n | इसमें ऐसे आव्यूह आते हैं, जिसमें केवल एक ही पंक्ति होते हैं। | |
स्तम्भ आव्यूह | n × 1 | इसमें ऐसे आव्यूह आते हैं, जिसमें केवल एक ही स्तम्भ होते हैं। | |
वर्ग आव्यूह | n × n | इसमें ऐसे आव्यूह आते हैं, जिसमें एक से अधिक पंक्ति और स्तम्भ होते हैं। अथवा इसमें स्तंभों तथा पक्तियों की संख्या समान होती है । इसे कुछ स्थितियों में अदिश आव्यूह, शून्य आव्यूह त्रिभुजीय आव्यूह भी कहते हैं। |
किसी भी आव्यूहों को लिखते समय उसे कोष्ठक में लिखा जाता है।
मुख्यतः आव्यूह को "A" से दर्शाया जाता है। वहीं a11 या a1,1 से पंक्ति और स्तम्भों के मान को दिखाया जाता है। ऊपर दिये गए उदाहरण में a11 पहले पंक्ति में और पहले स्तम्भ में है। इस कारण इसे 1,1 लिख कर दर्शाया गया है। वहीं इसी प्रकार से a12 या a1,2 पहले पंक्ति में है और दूसरे स्तम्भ में है। दूसरे स्तम्भ में होने के कारण अन्त में 2 लिखा गया है। पंक्ति के सभी मानों को m और स्तम्भ के सभी मानों को n से दर्शाया जाता है।
क्षैतिज कतरनी m=1.25. | क्षैतिज व्यवस्था | दबाव मानचित्रण r=3/2 | प्रक्षेपित 3/2 | परिक्रमण π/6R = 30° |
आव्यूह का बहुत लम्बा इतिहास है, लेकिन रेखीय गणना हेतु इसका उपयोग वर्ष 1800 के बाद ही शुरू हो पाया। चीनी पाठ्य "गणित कला के नौ अध्याय" दूसरी सदी में लिखा गया इसका पहला उदाहरण था। जिसमें इसे एक प्रकार के व्यूह संरचना के रूप में हल किया गया था। इसके बाद वर्ष 1545 में इटली के गणितज्ञ गिरोलामो कार्डनो ने इस विधि को चीन से ले कर यूरोप में अर्स मेग्ना के नाम से प्रकाशित किया। जापान के गणितज्ञ सेकी भी इस तरह के विधि से वर्ष 1683 में कई गणितीय समीकरण हल किए। इसके बाद डच गणितज्ञ जेन डे विट्ट ने इसका एक परिवर्तित रूप 1659 में एक पुस्तक में प्रकाशित किया।